सन्नाटा केवल शान्ति का प्रतीक, या, तूफान के पहले नहीं होता
आज सन्नाटा होते हुए भी नहीं था
कन्फ्यूज्ड…?
कहने के लिए चारों ओर शान्ति है मगर कुदरत अपनी आज़ादी चीख चीख कर मना रही है,
नहीं नहीं…..
इंसानों से नहीं, वह तो उसके “अपने” हैं
हाँ पर उस दुःख और दर्द से जो उसके “अपने” ही उसको देते हैं।
कारखानों से निकलते काले धुएँ ने,
बच्चों के बचपन से लेकर (child labour), कुदरत की ममता तक, सबको अपने चपेट में ले लिया है।
अगले इक्कीस दिन वोह उन सब ज़हर वाली चीजों से आज़ाद है , जो हम इंसानो को अंदर से, और, कुदरत को बाहर से खोखला बना रही है।(कहने का तात्पर्य यह है की, हमारे अंदर की मानवीयता को ख़तम कर रही है और वहीँ पेड़-पौधों को भी नुक्सान पहुंचा रही है )
सचमुच आज कुदरत की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था,
कहने को चिड़ियों की चहचहाहट कानों पर गिर रही थी,
लेकिन आज सीधा दिल को छू रही थी ।
शीत की लहर पहले भी उठती थी ,
पर आज उसकी सादगी रूह को छू रही थी।
हाँ वो बात अलग है की,
कहने को शान्ति हर जगह थी,
मगर इंसान का मन आज भी अशांत था,
फर्क सिर्फ इतना है की पहले “अपनी” नौकरी “अपने” पैसों की फिक्र होती थी और आज “अपनी” जान की है।
कुदरत को भी थी थोड़ी फिक्र, “अपनी नहीं”, हाँ लेकिन, “अपनों की”।।
पर आप उदास न होएं जनाब
सीख रहा है वह भी, हम इंसानों से उस खुद्दारी का हुनर।
उसकी भी क्या गलती,
सिर्फ २१ दिन जो दिए हैं हमने उसे खुलकर अपनी आज़ादी जीने को,
बावीसवें दिन से वह फिर से सहेगा जैसे अब तक सहता आया है
हवाएँ तब भी चलेंगी पर उनकी सादगी हमारी प्रगति की नंगी चादरों से ढक दी जाएँगी ,
पंछी खुले आकाश में उड़ने के बाद भी खुद को पिंजरे में कैद पाएंगे,
दुःख तो इस बात का है जनाब, इंसान २१ दिन बाद अपने पिंजरे से बहार निकलेंगे और प्रकृति आज़ाद हो कर भी खुद को कैद में पायेगी।।।
शाबाश 👏👏
बहुत कम लोग ऐसा सोचते हैं!
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आपने लॉकडाउन के पहले २१ दिनों को काफी वैचारिक भाषा में परिभाषित किया है । Really excellent ❣️.
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